नमस्कार प्रिय विद्यार्थियों आज की इस पोस्ट में आपको राजस्थान के प्रमुख लोक संगीतो के बारे में बताया गया है , जिसकी मदद से आप अपनी तैयारी को बेहतर कर सकते हो ,इसी तरह का ओर मेटर प्राप्त करने क लिए आप हमारी वेबसाइट www.exameguru.in को समय – समय पर विजिट करते रहे
राजस्थान का विशिष्ट भौगोलिक परिवेश यहाँ बहुरंगी लोक जीवन का सृजनकर्ता है। यहाँ है लोक जीवन का इतिहास, सामाजिक और नैतिक आदर्श लोक संगीत में संरक्षित है। जीवन के पार प्रसंग से संबंधित लोक गीत यहाँ पर उपलब्ध हैं।
जनसामान्य के स्वाभाविक उदगारों का प्रतिबिम्ब ही लोक संगीत है। लोक संगीत का मल आप लोक गीत हैं जिन्हें विभिन्न उत्सवों व अनुष्ठानों में सामूहिक रूप से गाया जाता है। लोक-वाद्यों की संगति इनके माधुर्य में वृद्धि करती है।
कवि रवीन्द्र नाथ टैगोर ने लोक गीतों को संस्कृति का सुखद सन्देश ले जाने वाली कला कहा है। गाँधीजी के शब्दों में “लोक गीत ही जनता की भाषा है, लोक गीत हमारी संस्कृति के पहरेदार हैं।”
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स्टैंडर्ड डिकशनरी ऑफ फोकलोर माइथोलॉजी एण्ड लेजेण्ड में लोक गीत को परिभाषित करते हए कहा है कि “लोक गीत उस जनसमूह की संगीतमयी काव्य रचनाएं है जिसका साहित्य लेखनी अथवा छपाई से नहीं वरन् मौखिक परम्परा से अविरत संबद्ध रहता है।”
लोक गीत की तुलना शास्त्रीय संगीत से नहीं की जा सकती क्योंकि लोकगीत विविध विषयों यथा पारिवारिक व सामाजिक अवसरों, मौसम, संस्कार, पर्वत्यौहार, देवी-देवता, विधि-विधान और कर्मकांड से संबंधित होते हैं। शास्त्रीय संगीत विषय के गंभीर ज्ञान से पैदा होता है जबकि लोक गीत दैनिक अनुभव और सच्चाइयों का सीधा-सपाट संप्रेषण करते हैं। शास्त्रीय संगीत का संबंध जहाँ बौद्धिकता से है, वहीं लोक गीत सीधे मानवीय भावनाओं से संबंधित होते हैं।
राजस्थान के लोक संगीत को हम तीन भागों में बाँट सकते हैं। लोक संगीत के प्रथम भाग में वे गीत आते हैं जो जन-सामान्य द्वारा विभिन्न अवसरों पर गाये जाते हैं। द्वितीय भाग में वे गीत हैं जो – सामन्तशाही के प्रभाव से विकसित हुए। कई जातियों ने अपने आश्रयदाता राजा-महाराजा, जागीरदार-सामन्त आदि की प्रशस्ति में गीत गाकर इन्हें व्यावसायिक रूप में अपनाया। तीसरे भाग में वे गीत आते हैं जिनमें क्षेत्रीय प्रभाव प्रचुरता से दृष्टिगत होता है।
जन-सामान्य के लोक गीत
सर्वाधिक लोक गीत संस्कारों, त्यौहारों व पर्यों के अवसर पर स्त्रियों द्वारा गाये जाते हैं। जन्म और विवाह संबंधी गीतों की संख्या अधिक है। वैवाहिक अवसर पर सगाई, बधावा, चाकभात, रतजगा, मायरा, हल्दी, घोड़ी, बना-बनी, वर निकासी, तोरण, हथलेवा, कंवर कलेवा, जीमणवार, काँकणडोरा, जला, जुआ-जुई आदि गीत गाये जाते हैं।
विवाह पूर्व वर-वधू की प्रेमाकांक्षा की अभिव्यक्ति बना-बनी के गीतों में मिलती है। विवाह के पूर्व वर लको रिश्तेदारों के यहाँ आमंत्रित किया जाता है वहां से लौटते समय बिंदोला’ (बंदोला) संबंधी गीत गाया जाता है। वर निकासी के मौके पर घुड़चढ़ी की रस्म के समय ‘घोड़ी’ गाई जाती है। वधू के घर की स्त्रिया द्वारा वर की बारात का डेरा देखने जाने का उल्लेख ‘जला’ गीतों में मिलता है।
शिशु के जन्म के अवसर पर गाये जाने वाले गीत ‘जच्चा’ कहे जाते हैं। इनमें सामान्यतः गर्भिणी की प्रशंसा, वंशवृद्धि का उल्लास और शिशु के लिए मंगलकामना की जाती है।
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त्यौहार व पर्व-गीतों में गणगौर, तीज, होली, रक्षाबंधन, दीपावली, नवरात्रि, मकर संक्रांति के अवसर पर गाये जाने वाले अनेक गीत हैं | गणगौर व तीज राजस्थान के विशेष पर्व हैं । गणगौर का पर्व चैत्र माह में सोलह दिनों तक कुंवारी कन्याओं व सधवा स्त्रियों द्वारा अनुष्ठानपूर्वक आयोजित किया जाता है। गणगौर का प्रसिद्ध गीत इस प्रकार है
“खेलण दो गणगौर भंवर म्हानें खेलण दो गणगौर,
म्हारी सखिया जोवे बाट हो भवर म्हाने खेलण दो गणगौर
‘ गणगौर व तीज के अवसर पर ‘घूमर’ नृत्य-गीत राजस्थान की पहचान बन चुका है। गीत इस : प्रकार है
“म्हारी घूमर छे नखराली ए मा गोरी घूमर रमवा म्है जास्याँ ।”
तीज पर श्रावण माह के प्राकृतिक सौन्दर्य का चित्रण करने वाले ‘तीज’ गीतों का गान किया जाता है। होली के समय फाल्गुन में पुरुषों की टोलियाँ रसिया, होरी, धमाल आदि गीत गाती हुई राजस्थान के प्रत्येक क्षेत्र में दिखाई पड़ती हैं।
राजस्थान के ऋतु-गीतों में शरद, ग्रीष्म, वर्षा और बसंत के गीत जैसे फाग, बीजण, शियाळा, बारहमासा, होली, चेती और कजली, जाड़ा, सावन के गीतों में चौमासा, पपैयो, बदली, मोर संबंधित गीत और इन्द्रदेव की स्तुति आदि है।
लोक देवताओं में तेजाजी, देवजी, पाबूजी, गोगाजी, जुझारजी आदि वीर पुरुषों ने परमार्थ के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था, अतः उनका गुणगान करने वाले अनेक भजन तन्मयता से गाये जाते हैं। लोक-देवियों में सती माता, सीतला माता, दियाड़ी माता की पूजा आदि अत्यन्त श्रद्धा से की जाती है। इनकी आराधना में भजन गाये जाते हैं।
मीरां, कबीर, दादू, रैदास, चन्द्रसखी, बख्तावरजी आदि के पदों का गान तथा नाथपंथी व निर्गुणी भजन भी बहुत संख्या में मिलते हैं। भरतपुर व कामाँ में ब्रज संस्कृति के प्रभाव से कृष्ण लीलाओं संबंधी .. गान और करौली क्षेत्र में कैलादेवी भक्ति के लांगुरिया गीत अति लोकप्रिय हैं।
राजस्थान की लोक-संस्कृति को प्रदर्शित करने वाले अनेक विषयों के गीत भी मिलते हैं। इनमें आकांक्षाओं, भावों व प्रसंगों को प्रकृति या किन्हीं वस्तुओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है। ऐसे गीतों में ईंडोणी, कांगसियों, गोरबन्द, पणिहारी, लूर, ओर्ले, सुपणा, हिचकी, मूमल, करजाँ. काजलिया कागा आदि अत्यन्त मधुर हैं। बच्चों के क्रीड़ा गीत, जादू-टोने से संबंधित कामण गीत आदि में लोक संगीत का सौन्दर्य दिखाई देता है।
व्यावसायिक जातियों के लोक गीत
राजस्थान में कई जातियों ने संगीत को व्यवसाय के रूप में अपनाया है। इनमें होली मिरासी लंगा ढाढ़ी, कलावन्त, भाट, राव, जोगी, कामड़, वैरागी, गन्धर्व, भोपे, भवाई, राणा, कालबेलिया कथिक आदि शामिल हैं। इनके गीत परिष्कृत, भावपूर्ण और वैविध्यमय होते हैं। इन्हें रयाल एवं तमरी की तरद्ध । छोटी-छोटी तानों, मुरकियों व विशेष झटकों से सजाया जाता है। इन गीतों में मॉड, देस, सोरठ, मारू, र परज, कालिंगड़ा, जोगिया, आसावरी, बिलावल, पीलू, खमाज आदि कई रागों की छाया प्रतिबिम्बित होती है।
राजस्थान की माँड गायकी अत्यन्त प्रसिद्ध है। सुविख्यात माँड गायिका पद्मश्री अल्लाह जिल्लाई. बाई का गाया ‘पधारो म्हारे देस’ पर्यटकों को खुला निमंत्रण है। विभिन्न क्षेत्रों में कुछ अंतर के साथ माँड के अनेक प्रकार प्रचलित हैं, जैसे- उदयपुर की माँड, जोधपुर की माँड, जयपुर-बीकानेर की माँड, जैसलमेर की माँड आदि।
यहाँ के अधिकांश दोहे देस व सोरठ पर आधारित हैं। व्यावसायिक जातियों द्वारा युद्ध के समय गाये जाने वाले वीर रसात्मक गीत सिन्धु और मारू रागों पर आधारित थे।
क्षेत्रीय लोक गीत
राजस्थान में भौगोलिक रूप से मरूस्थल, पर्वतीय क्षेत्र व समतल मैदान सभी विद्यमान है। बाड़मेर, जैसलमेर, बीकानेर, जोधपुर आदि मरूस्थलीय क्षेत्र के गीत अधिक आकर्षक व मधुर होते हैं। उन्मुक्त वातावरण की वजह से यहाँ के लोक गीत ऊँचे स्वरों व लम्बी धुन तथा अधिक स्वर विस्तार वाले होते हैं। कुरजाँ, पीपली, रतन राणो, मूमल, घूघरी, केवड़ा आदि यहाँ के प्रमुख लोक गीत हैं। कामड़, भोपे, लंगे, मिरासी, कलावन्त आदि यहां की प्रमुख संगीतज्ञ जातियां हैं।
राजस्थान के दक्षिणी पहाड़ी प्रदेश, जैसे- उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़, सिरोही तथा आबू में सामूहिक लोक गीतों का प्रचलन अधिक है। यहाँ भील, मीणा, गरासिया, सहरिया आदि जनजातियाँ निवास करती हैं। इनके गीतों की धुनें सरल, संक्षिप्त व कम स्वरों वाली होती हैं। मेवाड़ क्षेत्र के मुख्य लोक गीत पटेल्या, बीछियो, लालर, माछर, नोखीला, थारी ऊँटा री असवारी, नावरी असवारी, शिकार आदि है। उत्तरी मेवाड़ के भीलों का प्रसिद्ध गीत हमसीढ़ों है जिसे स्त्री व पुरुष मिलकर गाते हैं।
राजस्थान के समतलीय भाग में जयपुर, कोटा, अलवर, भरतपुर, करौली तथा धौलपुर क्षेत्र आते हैं। यहाँ भाषा और स्वर-रचना की दृष्टि से वैविध्ययुक्त गीत प्रचलित हैं। यहाँ भक्ति व शृंगार रस के गीतों का आधिक्य है।
इस प्रकार लोक संगीत की दृष्टि से राजस्थान एक समृद्ध प्रदेश है। रस की दृष्टि से यहाँ सर्वाधिक संख्या श्रृंगार-रस के गीतों की है। जिसमें वियोग शृंगार का वर्णन अधिक मिलता है, जिसके पीछे कारण यहाँ पुरुषों के जीविकोपार्जन अथवा व्यापार आदि हेतु परदेस गमन की प्रवृत्ति है। शृंगार रस के पश्चात् शांत रस और फिर वीर रसात्मक गीत आते हैं।
बच्चों के खेल-गीत
खेल लड़के-लड़कियों के जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। खेलों में गीत और कविता होने से अधिक सरसता हो जाती है। इन गीतों की राग साधारण है फिर भी उनमें लय है
(1) कान कतरनी, कान कतरनी छब्बक छैया छब्बक छैया, बोल मेरा भैया।
(2) टम्पो घोड़ी फूल गुलाब रो।
(3) काकड़ वेल मतीरा पाक्या टीडसियां का टोरा लाग्या, राजाजी राजाजी खोलो कुँवाड़ (छोटे बच्चों का)
(4) मछली मछली कितणो पाणी? हाँ मियाजी इतणो पाणी । (छोटे बच्चों का)।
(5) म्हारा महैलां पाछे कूण है?
दीपावली के 15 दिन पहले ही लड़के और लड़कियों की टोलियाँ प्रायः सबके घर गाते हुए निकल जाती हैं। लड़कों के द्वारा गाये जाने वाले गीतों को ‘लोवड़ी’ अथवा ‘हरणी’ भी कहते हैं और लड़कियों के द्वारा गाये जाने वाले गीतों को ‘घड़ल्यों’ कहते हैं। ये मेवाड़ की ओर प्रचलित हैं।
क्या आप जानते हैं?
(1) पुरुषों के गीत- भजन, होली पर चंग के गीत, धमाल, मंदिरों के रात्रि जागरण, कीर्तन आदि।
(2) बालकों के गीतों के अवसर- चौक च्यानणी (गणेश चतुर्थी महोत्सव), ढप के गीत, धमाले, मंदिरों के रात्रि जागरण के भजन, दीपावली।
(3) स्त्रियों के गीतों के अवसर- होली, तीज (चौमासा), गणगौर (घूमर), विवाह, पुत्र-जन्मोत्सव, रातिजगे, हरजस, बारा मासिये, शीतला, पावणा के शुभागमन पर, कार्तिक स्नान, जच्चा, जात, जडूले एवं मेले।
(4) बालिकाओं के गीतों के अवसर- गणगौर, जीजा के आगमन पर, चानाचट के त्यौहार पर, तीज (झले के गीत), होली, दीपावली।
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