गुर्जर प्रतिहार वंश : गुर्जर प्रतिहार वंश का शासन छठी से बारहवीं शताब्दी तक रहा है। आठवीं से दसवीं शताब्दी के दौरान राजस्थान में गुर्जर प्रतिहार वंश शक्तिशाली रहा। इस वंश का शासन राजस्थान ही नहीं बल्कि पूरे उत्तरी भारत में फैला हुआ था। प्रारम्भ में इनकी शक्ति के मुख्य केन्द्र मण्डोर व भीनमाल थे। राजस्थान में गुर्जर प्रतिहार वंश के दो प्रमुख केन्द्र (मण्डोर व भीनमाल) रहे हैं।
बाद में उज्जैन तथा कन्नौज भी गुर्जर प्रतिहारों की शक्ति के केन्द्र रहे।
‘गुर्जर-प्रतिहार’ शब्द दो शब्दों का योग है गुर्जर शब्द- गुर्जरात्रा प्रदेश (मरू प्रदेश का एक अंश) का प्रतीक है। प्रतिहार शब्द किसी जाति या पद का प्रतीक है। (प्रतिहार- जो राजा के महलों के बाहर रक्षक का कार्य करते थे।) इस प्रकार प्रतिहार जाति द्वारा गुर्जरात्रा प्रदेश शासित करने के कारण गुर्जर प्रतिहार वंश का उद्भव हुआ।
डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार- “छठी शताब्दी के मध्य तक राजस्थान नाम का न तो कोई राज्य था न कोई ईकाई। उस समय मरूप्रदेश का एक भाग गुर्जरात्र प्रदेश कहलाता था, गुर्जरात्र प्रदेश पर प्रतिहार शासन कर रहे थे, इसलिए उन्हें गुर्जर-प्रतिहार नाम से सम्बोधित किया जाने लगा।”
बादामी के चालुक्य नरेश पुल्केशियन द्वितीय के ‘ऐहोल अभिलेख में गुर्जर जाति का सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है।
बाणभट्ट ने अपनी पुस्तक ‘हर्षचरित‘ में गुर्जरों का वर्णन किया है। हेनसांग (चीनी यात्री) ने गुर्जर प्रदेश की राजधानी भीनमाल (पीलामोलो) को बताया है अपनी पुस्तक ‘सी.यू.की.’ में गुर्जर प्रतिहार शब्द का संबोधन किया है।
डॉ. आर.सी. (रमेशचन्द्र) मजूमदार- ‘प्रतिहार शब्द का प्रयोग मंडोर की प्रतिहार जाति के लिए हआ है क्योंकि प्रतिहार अपने आप को लक्ष्मण का वंशज मानते हैं, लक्ष्मण भगवान राम की सेवा में एक प्रतिहार का कार्य करते थे, इसलिए वे लोग प्रतिहार कहलाए, कालान्तर में गुर्जरात्र प्रदेश पर शासन करने से गुर्जर-प्रतिहार कहलाए।’
प्रसिद्ध इतिहासकार रमेशचन्द्र मजूमदार के अनुसार गुर्जर-प्रतिहारों ने छठी शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक अरब आक्रमणकारियों के लिए बाधक का काम किया। राष्ट्रकुटों और पालवशीय राजाओं के शिलालेख में तथा अरब यात्रियों के वृत्तान्त में प्रतिहारों को ‘गुर्जर‘ शब्द के साथ जोड़कर सम्बोधित किया गया है।
बौक अभिलेख (जोधपुर) के अनुसार गुर्जर प्रतिहार वंश का अधिवासन मारवाड़ में लगभग 6वीं शताब्दी के द्वितीय चरण में हो चुका था।
डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने प्रतिहारों को जाति न मानकर पद से सम्बन्धित माना है। इस पद से उस व्यक्ति का बोध होता है जो राजदरबार या महल के द्वार-रक्षक के रूप में सेवा करे।
शिलालेखों में नागभट्ट प्रथम को ‘राम का प्रतिहार’ लिखा गया है।
गुर्जर-प्रतिहार शैली – 8वीं से 12वीं शताब्दी के मध्य उत्तर भारत में मंदिर व स्थापत्य निर्माण की जिस शैली का विकास । हुआ, वह शैली ‘महामारू शैली/गुर्जर-प्रतिहार शैली‘ कहलाई। इस शैली में बने अधिकांश मंदिर ‘सूर्य या विष्णु’ को समर्पित हैं। 10वीं व 11वीं शताब्दी में गुर्जर प्रतिहार शैली का पूर्ण विकास देखने का मिलता है।
गुर्जर-प्रतिहार वंश की उत्पत्ति
गुर्जर प्रतिहार वंश के बारे में सभी विद्वानों के अलग -अलग मत है जो निम्न प्रकार है
नीलकुण्ड, देवली, राधनपुर (गुजरात), करडाह अभिलेखों में प्रतिहारों को ‘गुर्जर प्रतिहार‘ कहा है।
मिहिरभोज के ग्वालियर अभिलेख में प्रतिहार शासक ‘वत्सराज‘ को विशुद्ध क्षत्रिय बताया है।
अरब यात्री- अरब यात्रियों ने गुर्जरों को ‘जुर्ज या अल गुर्जर‘ भी कहा है।
अलमसूदी – ‘अल मसूदी‘ ने प्रतिहारों को ‘अल गुर्जर‘ तथा
प्रतिहार राजा को ‘बोरा‘ कहकर पुकारा है।
मिस्टर जैक्सन – ने बम्बई गजेटियर में गुर्जरों को विदेशी माना है
डॉ. गौरीशंकर ओझा – ने प्रतिहारों को क्षत्रिय बताया है।
जॉर्ज कैनेडी (इंग्लैण्ड) – ने इन्हें ‘ईरानी मूल‘ के बताया है।
डॉ. भण्डारकर – ने इन्हें ‘विदेशी‘ बताया है।
कनिघम – ने इन्हें ‘कुषाणवंशी‘ कहा है।
पाश्चात्य इतिहासकारों ने प्रतिहारों को ‘गुर्जर‘ माना है जो कि विदेशी हूणों के साथ भारत आए।
स्मिथ स्टेनफोनी- ने इन्हें ‘हूण वंशी‘ कहा है।
प्रतिहारों ने स्वयं को राम के भाई ‘लक्ष्मण का वंशज‘ माना है।
प्रतिहारों का मूल स्थान
बाउक के मंडोर शिलालेख व कक्कुक के घटियाला शिलालेखों से इनका मूल स्थान गुर्जरात्रा प्रदेश (पश्चिमी राजस्थान में) को माना जाता है। कुछ विद्वान प्रतिहारों का मूल स्थान मण्डोर (जोधपुर) मानते हैं।
‘स्मिथ‘ हवेनसांग के वर्णन के आधार पर प्रतिहारों का मूल स्थान आबू पर्वत के उत्तर पश्चिम में स्थित श्रीमाल अथवा भीनमाल को मानते है।
कुछ अन्य विद्वान इनका मूल स्थान ‘उज्जैन‘ को भी मानते हैं। गुर्जर प्रतिहारों की शाखाएँ- प्रतिहारों की अनेक शाखाएँ थी मुहणौत नैणसी ने प्रतिहारों की 26 शाखाओं का वर्णन किया है। जिनमें से मंडोर, भीनमाल, उज्जैन, कन्नौज व भड़ौच के प्रतिहार ज्यादा प्रसिद्ध थे।
गुर्जर प्रतिहार मंडोर में स्थित ‘चामुण्डा माता‘ को अपनी कुलदेवी के रूप में पूजा करते थे।
प्रमुख शाखाएँ –
1. मण्डोर शाखा (सबसे प्राचीन शाखा)
2. भीनमाल शाखा
3. कन्नौज शाखा
गुर्जर प्रतिहार वंश की मण्डोर शाखा
गुर्जर प्रतिहार वंश की सभी शाखाओं में सबसे प्राचीन शाखा है।
हरिशचन्द्र –
उपनाम- रोहिलद्धि/ प्रतिहारों का गुरू/गुर्जर प्रतिहारों का आदि पुरूष/प्रतिहार वंश का संस्थापक / गुर्जर प्रतिहारों का मूल पुरूष।
घटियाला शिलालेख (जोधपुर 837 ई. से 861 ई. के हैं) इन शिलालेखों के अनुसार छठी शताब्दी के द्वितीय चरण में ‘हरिशचन्द्र‘ नाम का एक ब्राह्मण विद्वान था इसे ‘रोहिल्लद्धि’ भी कहा जाता था। इसकी दो पत्नियाँ थी। एक ब्राह्मण वंश से व दुसरी क्षत्रिय कुल से थी।
1. क्षत्रिय पत्नी (भद्रा)
2. ब्राह्मण पत्नी
ब्राह्मण पत्नी से उत्पन्न संतान ब्राह्मण प्रतिहार व क्षत्रिय रानी से उत्पन्न संतान क्षत्रिय प्रतिहार कहलाये। क्षत्रिय रानी ‘भद्रा के 4 पुत्र हुए। भोगभट्ट, कक्क, रज्जिल, दह
चारों पुत्रों ने मिलकर माडण्यपुर (मण्डोर) को जीता और उसके चारों ओर प्राचीर का निर्माण करवाया तथा गुर्जर प्रतिहार वंश की स्थापना की।
रज्जिल- (हरिशचन्द्र का तीसरा पुत्र)
हरिशचन्द्र के बाद मण्डोर की वंशावली रज्जिल (लगभग 560 ई। से शुरू होती है, इसने मण्डोर को राजधानी बनाकर ‘राजमा यज्ञ‘ किया। रज्जिल ने रोहिंसकूप नगर में ‘महामंडलेश्वर महादेव’ का मंदिर बनवाया। इसी कारण इनके दरबारी ब्राह्मण नरहरि ने इसे ‘राजा‘ की उपाधि दी।
नरभट्ट- (रज्जिल का उत्तराधिकारी)
इसने ‘पिल्लीपणी‘ की उपाधि धारण की।
रोहिंसकूप नगर (घटियाला) में ‘विष्णु मंदिर’ बनवाया।
नागभट्ट-I- (रज्जिल का पोता)
यह बड़ा महत्वकांक्षी था, नाहड़ नाम से भी पुकारा गया। इसने अपने साम्राज्य का विस्तार किया। मरूप्रदेश में ‘मेड़ता‘ को जीता, मण्डोर से मेड़ता (मेड़न्तकपुर) को अपनी राजधानी बनाया।
नागभट्ट-I को रानी ‘जज्जिका देवी‘ से 2 पुत्र (भोज व तात) हुए। बड़े पुत्र ‘तात‘ ने राज्य छोड़कर अपने भाई भोज को दे दिया और स्वयं मण्डोर के पवित्र आश्रम में रहकर वैराग्य धारण किया।
इसके बाद भोज प्रतिहार (नागभट्ट-I का पुत्र), यशोवर्द्धन, चंदुक प्रतिहार शासक बने।
शीलूक
भोज की तीन पीढ़ी के बाद चंदुक का पुत्र शीलूक मण्डोर के प्रतिहार वंश के दसवें शासक के रूप में गद्दी पर बैठा।
इसने वल्लमण्डल (जैसलमेर के आस-पास का क्षेत्र) के देवराज | भाटी को हराया। त्रावण/तवन क्षेत्र (उ.प. राजस्थान का क्षेत्र) पर भी अधिकार कर अपने साम्राज्य का विस्तार किया।
सिद्धेश्वर महादेव मंदिर का निर्माण कराया।
झोट प्रतिहार
शीलूक का पुत्र था, इसने गंगा में जाकर मुक्ति प्राप्त की। प्रतिहारों में एकमात्र वीणा वादक शासक था।
झोट के बाद उसका पुत्र ‘भीलादित्य‘ राजा बना । भिल्लादित्य के बाद उसका पुत्र ‘कक्क‘ राजा बना।
भिल्लादित्य
भिल्लादित्य ने भी अपना राज्य छोड़कर हरिद्वार में जाकर अपनी देह छोड़ी।
कक्क
भिल्लादित्य का पुत्र था।
कक्क व्याकरण, ज्योतिष का ज्ञाता व एक कवि था। इसने मुंगेर के गौड़ों को परास्त किया। यह नागभट्ट-II का प्रमुख सामंत था। इसने बंगाल के ‘धर्मपाल‘ के विरूद्ध युद्ध में भाग लिया था।
इसकी दो रानियाँ थी। भाटी वंश की ‘पदमिनी रानी‘ से ‘बाउक‘ व दुर्लभ देवी से ‘कक्कुक‘ नामक पुत्र हुए।
बालक/बाउक- (कक्क का पुत्र)
इसने 837 ई. मण्डोर के विष्णु मंदिर की प्रशस्ति लगवाई। जिसमें मंडोर के प्रतिहारों की नामावली दी गई है। इसने मण्डोर पर आक्रमण करने वाले राजा मयूर को हराया।
कक्कुक – बाउक का सौतेला भाई था।
कक्कुक ने दो स्तम्भों का निर्माण करवाया। जिसमें से एक मण्डौर (जोधपुर) व दूसरा रोहिन्सकूप (जोधपुर) में है।
इसने 861 ई. में दो शिलालेख लगवाए (घटियाला शिलालेख)
प्रथम शिलालेख – इसमें कक्कुक प्रतिहार को न्यायप्रिय, जनहित सम्पादनकर्ता, दुष्टों को दण्ड देने वाला, दीनों का रक्षक, वीर तथा साहसी शासक बताया गया है। कक्कुक की लोकप्रियता का प्रभाव गुजरात, वल्ल, लाट, माड, शिव, मालाणी व पचपदरा तक विस्तारित बताया गया है।
द्वितीय शिलालेख – रोहिन्सकूप (घटियाला) को आभीरों के उपद्रव से मुक्त करवा कर रोहिन्सकूप में महाजनों को बसाया था और व्यापार की वृद्धि की।
कक्कुक के बाद मण्डोर प्रतिहारों के शासकों के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं मिलती है। 12वीं शताब्दी के मध्य में मण्डोर के आस-पास चौहानों ने अपना अधिकार स्थापित कर लिया। लेकिन मण्डोर दुर्ग प्रतिहारों के अधीन ही रहा।
नोट- 1395 ई. में प्रतिहारों की इन्दा शाखा ने मण्डोर दुर्ग ‘चूंडा राठौड़‘ को (मालवा के सुबेदार से रक्षा हेतु) दहेज में दे दिया। इस घटना के साथ ही मण्डोर के प्रतिहारों के राजनीतिक विस्तार का इतिहास समाप्त हो गया।
भडौच के प्रतिहार
सातवीं व आठवीं शताब्दी के कुछ दानपत्रों से यह पता चलता है कि भड़ौच और उसके आसपास के क्षेत्रों पर गुर्जर प्रतिहार वंश का शासन था। इन दानपत्रों में इनकों ‘सामन्त’ व ‘महासामन्त’ कहा गया है। इससे अनमान होता है कि ये स्वतन्त्र शासक नहीं। होकर किसी अन्य राजा के सामन्त के रूप में शासन करते थे।
डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार ये मण्डौर के प्रतिहारों और गुजरात के चालुक्यों के सामन्त थे।
भड़ौच के गुर्जरों की राजधानी ‘नांदीपुरी‘ थी।
दद्द द्वितीय – भडोच के गुर्जरों का शक्तिशाली शासक था।
वल्लभी के शासक ध्रुवसेन द्वितीय ने हर्षवर्धन से पराजित होन के बाद दद्द द्वितीय के पास ही शरण ली थी।
जयभट्ट चतुर्थ – इस शाखा का अंतिम शासक था। इसके पश्चात प्रतिहारों की इस शाखा का शासन समाप्त हो गया।
भीनमाल (जालौर), उज्जैन व कन्नौज के प्रतिहार
गुर्जर प्रतिहार शासकों के सम्बन्ध में प्राप्त शिलालेखों व साहित्यिक स्रोतों से इनकी विभिन्न राजधानियों के विवरण व शासकों के मिलते जुलते नामों के कारण इन शासकों के क्रमबद्व इतिहास की जानकारी नहीं मिलती।
भीनमाल शाखा
नागभट्ट-I- (730 ई.-760 ई.)
इन्हे भीनमाल (जालौर) शाखा का संस्थापक माना जाता हैं।
भीनमाल की इस शाखा को ‘रघुवंशी‘ प्रतिहार शाखा भी कहते
हैं।
नागभट्ट प्रथम को ‘नागावलोक‘ तथा इसके दरबार को ‘नागावलोक दरबार‘ कहा जाता था।
उपनाम- नारायण की मूर्ति का प्रतीक/राम का प्रतिहार/क्षत्रिय ब्राह्मण/इन्द्र के दम्भ का नाशक/जालौर के गुर्जर प्रतिहारों का संस्थापक
इसने सबसे पहले भीनमाल को चावड़ों से जीता तथा ‘भीनमाल‘ को राजधानी (730 ई.) बनाया। फिर इसने आबू, जालौर आदि को विजित किया तथा ‘उज्जैन’ को अपनी राजधानी बनाया।
नोट- नागभट्ट-I के समय सभी राजपूत वंश, गुहिल, चौहान, परमार, राठौड़, चंदेल, चालुक्य, इसके सामन्त के रूप में कार्य करते थे।
ग्वालियर अभिलेख के अनुसार नागभट्ट ने म्लेच्छ (अरबी) सेना को पराजित कर अपने साम्राज्य का विस्तार किया अतः नागभट्ट-I को ‘प्रतिहार साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक‘ कहा जाता है।
इसने दक्षिण पश्चिम में अरब आक्रमणकारियों के विस्तार को रोका। सिन्ध के गर्वनर ‘जुनैद’ के उत्तराधिकारियों को पराजित कर ‘भड़ौच’ छीना।
नागभट्ट को राष्ट्रकूट शासक ‘दंतीदुर्ग‘ से पराजित होना पड़ा।
कक्कुक व देवराज- (760 ई.-783 ई.)
नागभट्ट के बाद उसका भतीजा कक्कुस्थ/कक्कुक गद्दी पर बैठा। कक्कुक ने मण्डोर में ‘विजय स्तम्भ‘ की स्थापना की तथा उसके नीचे विष्णु का मंदिर बनवाया।
यह राजपूताना का दूसरा प्राचीन विजय स्तम्भ है।
प्रथम-समुद्रगुप्त द्वारा बयाना में भीमलाट है।
कक्कुक के बाद उसका भाई देवराज (नागभट्ट का भतीजा) गद्दी पर बैठा। देवराज को अवन्ति (उज्जैन) का शासक कहा गया है। इसकी रानी भूमिकादेवी ने ‘वत्सराज‘ को जन्म दिया।
वत्सराज- (783 ई.-795 ई.)
यह देवराज का पुत्र था।
इसे ‘रणहस्तिन‘ की उपाधि दी गई है।
इसे ‘प्रतिहार राज्य की नींव डालने वाला शासक‘ कहा जाता है
औसियां व दौलतपुर अभिलेखों के अनुसार वत्सराज ने ‘भण्डी‘ जाति को हराकर उसके राज्य पर अधिकार कर लिया।
वत्सराज के समय ही कन्नौज के लिए त्रिदलीय संघर्ष प्रारम्भ हुआ, जो लगभग 150 वर्ष चला।
त्रिदलीय/त्रिकोणीय संघर्ष – वत्सराज के समय कन्नौज उत्तर भारत का प्रमुख केन्द्र बनता जा रहा था अतः कन्नौज , पर पूर्वी बंगाल के ‘पाल वंश’, दक्षिण के ‘राष्ट्रकूट वंश’ व, ‘गुर्जर प्रतिहार वंश’ के शासकों की नजर थी। कन्नौज को लेकर उक्त तीनों राजवशों में संघर्ष हुआ था। इस त्रिपक्षीय के दौरान कन्नौज पर इन्द्रायुध व चक्रायुध नामक शक्तिविहीन आयुधवंश के शासकों का शासन था। इस संघर्ष का प्रारम्भ वत्सराज ने किया (गुर्जर प्रतिहारों ने किया)
वत्सराज प्रतिहार जब जालौर का शासक बना उस समय अरबी आक्रमणकारी जालौर पर आक्रमण करके जालौर को लूट कर ले जाते थे, इस कारण वत्सराज प्रतिहार स्वयं के लिए सुरक्षित स्थान की तलाश में था।
647 ई. में कन्नौज के शासक ‘हर्षवर्धन‘ की मृत्यु के बाद कन्नौज का शासन लड़खड़ा गया था, वत्सराज ने इसका फायदा उठाते हुए कन्नौज पर आक्रमण कर वहाँ के शासक ‘इन्द्रायुध‘ को हराकर ‘कन्नौज‘ पर अधिकार कर लिया।
यह बात पाल वंश के शासक ‘धर्मपाल‘ को पसन्द नहीं आयी उसने वत्सराज को हराने के लिए ‘जालौर पर आक्रमण‘ कर दिया जिसमें वत्सराज प्रतिहार विजय हुआ।
उसके बाद वत्सराज की बढ़ती हुई शक्ति को देखकर दक्षिण के राष्ट्रकूट वंश के शासक ‘ध्रुव प्रथम‘ ने जालौर पर आक्रमण किया जिसमें वत्सराज की हार हुई तथा ध्रुव प्रथम की विजय हुई।
राधनपुर और वनी, डिंडोरी शिलालेखों से पता चलता है कि इस युद्ध में पराजित होकर वत्सराज ने मरूस्थल में शरण ली।
उद्योतन सूरी ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘कुवलय माला‘ की वत्सराज के समय ही जालौर में की।
‘हरिवंश पुराण (जिनसेन सूरी) भी वत्सराज के समय की रचना है।
वत्सराज शैव मत का अनुयायी था इन्होंने ओसियाँ (जोधपर एक सरोवर तथा महावीर स्वामी का एक मंदिर बनवाया जो पश्चिम भारत का प्राचीनतम जैन मंदिर माना जाता है।
नागभट्ट-II- (795 ई.-833 ई.)
वत्सराज व उसकी रानी सुन्दरदेवी का पुत्र था।
इस त्रिवंशीय संघर्ष में नागभट्ट-II ने प्रतिहारों का नेतृत्व किया। गोविन्द-III से हारा- नागभट्ट-II ने 806 ई.-808 ई. के मध्य राष्ट्रकूट वंश के शासक गोविन्द-III से युद्ध किया जिसमें नागभट्ट-II की हार हुई।
चक्रायुध को हराया – नागभट्ट-II ने अपना साहस नहीं खोया जब गोविन्द वृद्ध हो गया व अपनी घरेलू समस्या में फंस गया तो इसका फायदा उठाते हुए नागभट्ट-II ने कन्नौज के शासक ‘चक्रायुध‘ को 816 ई. में परास्त कर ‘कन्नौज’ को अपनी राजधानी बनाई, इस प्रकार नागभट्ट-II द्वितीय के शासनकाल से ‘प्रतिहारों की कन्नौज शाखा‘ का आरम्भ हुआ।
मुण्डोर युद्ध में धर्मपाल को हराया – कन्नौज का शासक चक्रायुद्ध धर्मपाल (पालवंश) का आश्रित था अतः धर्मपाल ने नागभट्ट पर आक्रमण कर लिया दोनों के मध्य मुण्डोर/मुंगेर नामक स्थान पर युद्ध हुआ जिसमें नागभट्ट की विजय हुई।
उपाधि – मुण्डोर विजय के बाद नागभट्ट द्वितीय ने ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर‘ की उपाधि धारण की।
ग्वालियर लेख के अनुसार – नागभट्ट-II ने मत्स्यप्रदेश, मालवा, उत्तरी काठियावाड़ (आनर्तप्रदेश), किरात प्रदेश (हिमालय का दक्षिणी क्षेत्र), वत्स व कोशाम्बी आदि प्रदेशों व तुरूस्कों (मुस्लिम आक्रांताओं) को पराजित किया।
नागभट्ट के समय प्रतिहार राज्य उत्तरी भारत में एक शक्तिशाली राज्य बन चुका था।
23 अगस्त 833 ई. को नागभट्ट द्वितीय ने गंगा में जल समाधि ली।
बुचकला (जोधपुर) में नागभट्ट-II ने एक विष्णु तथा शिव मंदिर बनवाया जो वर्तमान में ‘शिव तथा पार्वती मंदिर’ के रूप में| विख्यात है।
गोविन्दराज चाहमान (गुवक प्रथम) गुहिल खुमाण (गुहिल शासक) नागभट्ट-II के सामंत थे।
रामभद्र- (833-836 ई.)
नागभट्ट द्वितीय के पुत्र रामभद्र के समय मण्डोर के प्रतिहार स्वतंत्र हो गए तथा अन्य कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल नहीं हुई।
रामभद्र को पालों के विरूद्ध हार का सामना करना पड़ा।
रामभद्र की हत्या उसी के पुत्र ‘मिहिरभोज‘ ने की।
मिहिरभोज (836-885 ई.)
उपनाम – भोज प्रथम/आदिवराह/ प्रभास पाटन (वैष्णव उपासक होने के कारण)/ प्रतिहारों का सबसे शक्तिशाली शासक
पिता – रामभद्र
माता – अप्पा देवी
पत्नी- चन्द्रभट्टारिका
मिहिरभोज अपने पिता रामभद्र की हत्या कर शासक बना था,
इसलिए उसे ‘प्रतिहारों में पितृहता‘ कहा गया ।
मिहिरभोज अपने समय का उत्तरी भारत में सबसे शक्तिशाली शासक था।
वराह अभिलेख – इसका प्रथम अभिलेख वराह अभिलेख है। जो 836 ई. का है।
ग्वालियर प्रशस्ति – मिहिरभोज के समय का सर्वाधिक प्रसिद्ध अभिलेख ग्वालियर प्रशस्ति है। ग्वालियर अभिलेख में इसकी उपाधि आदिवराह का वर्णन मिलता है।
दौलतपुर अभिलेख – दौलतपुर अभिलेख में इसे ‘प्रभास‘ कहा गया है।
ग्वालियर प्रशस्ति और अरब यात्री सुलेमान के यात्रा वृतान्त से इनके शासन के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिलती है।
अरब यात्री सुलेमान ने मिहिरभोज को भारत का सबसे शक्तिशाली शासक बताया है जिसने अरबों को रोक दिया था। सुलेमान ने मिहिरभोज को ‘अरबों का अमित्र‘ तथा ‘इस्लाम का शत्रु’ बताया।
सुलेमान – इसने 851 ई. में मिहिरभोज के समय भारत की । यात्रा की। इसकी पुस्तक ‘किताब-उल-सिंध-वल-हिन्द’ । है। इसने पाल और प्रतिहार राजाओं के विषय में लिखा है। ‘इसने गुर्जर प्रतिहार राजवंश की सैन्य शक्ति एवं समृद्धि का उल्लेख करते हुए लिखा है कि इस नरेश के पास एक विशाल सेना थी। उसकी अश्व सेना भारत के किसी भी अन्य राजा की अश्व सेना से बड़ी थी।
मिहिरभोज के युद्ध
राष्ट्रकूट शासक कृष्ण-II व कलिजरां के जयशक्ति चंदेल को नर्मदा के तट पर हराया।
राष्ट्रकूट शासक कृष्ण-II को हराकर मालवा को छीना।
इसने पाल वंश के देवपाल को हराया।
पाल वंश के विग्रह पाल (नारायण पाल) को हराकर अन्तिम रूप से कन्नौज पर अपना अधिकार जमाया।
साम्राज्य – मिहिरभोज का साम्राज्य उत्तर भारत में ‘हिमालय की तराई‘ से दक्षिण में ‘बुदेलखण्ड‘ तक, पश्चिम में राजपूताने में मरूप्रदेश से लेकर पूर्व में ‘पाल साम्राज्य‘ की सीमा तक विस्तारित था।
इनके समय के चाँदी व ताँबे के सिक्के मिले हैं जिन पर ‘श्री मदआदिवराह‘ शब्द अंकित है।
बग्रमा लेख (U.P.) में इसे सम्पूर्ण ‘पृथ्वी को जीतने वाला’ बताया गया है।
स्कन्ध पुराण के अनुसार मिहिरभोज ने तीर्थ यात्रा करने के लिए शासनकार्य अपने पुत्र महेन्द्रपाल को सौंपकर सिंहासन त्याग दिया।
महेन्द्र पाल-I (885-910 ई.)
मिहिरभोज का पुत्र था।
माता का नाम- चन्द्राभट्टारिका
उपनाम – रघुकुल चुडामणी/ निरभेश्वर/ निर्भय नरेश/ निर्भयराज निर्भय नरेन्द्र/ महीपाल/ महेन्द्रायुध/ परमउद्वारक/ परमभागवत/ परमेश्वर
संयुक्त सेना को हराया- पाल राष्ट्रकूल व प्रतिहारों के संघर्ष में ‘पाल राष्ट्रकूटों की संयुक्त सेना‘ को हराने वाला प्रथम शासक था।
राजशेखर – यह गुर्जर प्रतिहार शासक महेन्द्रपाल प्रथम व उसके पुत्र महिपाल प्रथम का दरबारी साहित्यकार एवं संस्कृत का प्रसिद्ध विद्वान था। महेन्द्रपाल प्रथम का गुरु था।
राजशेखर की प्रमुख रचनाएँ काव्यमिमांसा, कर्पूरमंजरी, विद्धशाल भंजिका, बाल भारत, बालरामायण, हरविलास, प्रचण्ड पाण्डव।
कवि राजशेखर ने अपने ग्रन्थ ‘विद्धशाल भंजिका’ में अपने आश्रयदाता नरेश महेन्द्रपाल को ‘रघुकुल तिलक‘ कहा है।
भोज II (910-913 ई.)
महेन्द्रपाल-I के पश्चात उसका पुत्र भोज-II राजा बना। लेकिन महेन्द्रपाल की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों में उत्तराधिकार संघर्ष हुआ।
प्रारम्भिक संघर्ष में भोज अपने चेदि सामन्त कोक्कलदेव प्रथम की सहायता से विजयी होकर कन्नौज की गद्दी पर बैठा।
भोज केवल 3 वर्ष तक ही शासन कर पाया कि उसके सौतेले भाई महिपाल-I ने चन्देल शासक हर्षदेव की सहायता से उसका राज्य छीन लिया।
महिपाल-I (913-043 ई.)
उपनाम – विनायकपाल एवं हेरम्भपाल
राजशेखर ने महिपाल-I को ‘आर्यावर्त का महाराधाधिराज‘ व ‘रघुकुल मुकुटमणी‘ के नाम से पुकारा।
इसके सिंहासन पर बैठते ही राष्ट्रकूट वंश के ‘इन्द्र-III’ ने कन्नौज पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया, महिपाल-I हार कर कन्नौज से भाग गया। लेकिन राष्ट्रकूटों के वापस चले जाने के बाद ‘चन्देल नरेश हर्ष‘ की सहायता से पुनः कन्नौज पर अधिकार कर लिया।
अलमसूदी – यह एक अरब यात्री एवं भूगोलवेत्ता था। संभवतः 915-916 ई. में महिपाल-1 के समय भारत आया था। ‘अल मसुदी’ ने प्रतिहारों को ‘अल गुर्जर’ तथा प्रतिहार राजा को । बोरा’ कहकर पुकारा। इसने अपनी पुस्तक ‘महजुल जुहाब’ में अपना यात्रा वृत्तान्त और भौगोलिक टिप्पणियाँ लिखी है।
महिपाल के बाद गुर्जर प्रतिहारों की शक्ति क्षीण होने लगी। उसके उत्तराधिकारी भी निर्बल शासक साबित हुये।
महेन्द्रपाल-II (945-948 ई.)
महिपाल प्रथम की मृत्यु के बाद उसका पुत्र महेन्द्रपाल द्वितीय
शासक बना, इसकी माता का नाम प्रज्ञाधना था।
देवपाल (948-953 ई.)
यह अत्यन्त निर्बल शासक था। इनके समय चन्देलों ने अपना स्वतंत्र राज्य बना लिया। चंदेल शासक यशोवर्मन ने इसके अनेक क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया।
विनायकपाल (953-955 ई.)
954 ई. के खजुराहो अभिलेख से इसका नाम प्राप्त होता है। यह महेन्द्रपाल द्वितीय का पुत्र था।
महिपाल द्वितीय (865-900 ई.)
955 ई. के बयाना अभिलेख इसी के काल का है। जिसमें इसके लिए ‘महाराजाधिराज महिपाल देव‘ शब्द प्रयोग किया गया है।
विजयपाल (980-900 ई.)
यह महेन्द्रपाल द्वितीय का पुत्र तथा देवपाल का भाई था। इनके समय गुजरात के चालुक्य राजाओं ने अपने आप को स्वतंत्र बना लिया।
डॉ. ओझा के अनुसार देवपाल की मृत्यु उसके सामंत गुहिल वंशीय शासक अल्लट के हाथों हुई थी।
राज्यपाल/राजपाल (990-1018 ई.)
विजयपाल की मृत्यु के बाद उसका पुत्र राज्यपाल 990 ई. में राजगद्दी पर बैठा।
इसके समय ‘मोहम्मद गजनवी’ ने कन्नौज पर (1018 ईर आक्रमण किया, राज्यपाल डर कर कन्नौज छोड़कर भाग दिसम्बर 1018 ई. में मोहम्मद गजनवी ने कन्नौज में प्रवेश की कन्नौज के मंदिरों और मकानों को लूटा और नष्ट कर दिया। राज्यपाल की कायरता के कारण भारतीय राजाओं (चंदेल शासक गंड के पुत्र विद्याधर चंदेल) ने संघ बनाकर राज्यपाल पर आक्रमण इसे मार डाला।
त्रिलोचनपाल
राज्यपाल के बाद त्रिलोचनपाल नामक शासक का वर्णन मिलता। है।
1019 ई. में महमूद गजनवी ने पुनः आक्रमण किया और त्रिलोचन को पराजित किया।
यशपाल
प्रतिहार वंश का अंतिम शासक (1036 ई.) था।
11वीं शताब्दी के अंत में (1093 ई.) में गहड़वाल शासक चन्द्रदेव
ने कन्नौज पर अधिकार कर ‘गहड़वाल वंश‘ का अधिकार स्थापित कर लिया।
इस प्रकार प्रतिहारों के साम्राज्य का 1093 ई. में पतन हो गया।
गुर्जर-प्रतिहारों के पतन के कारण
1. प्रतिहारों के सामंतों तथा परिवार के व्यक्तियों में फूट ।
2. पाल, राष्ट्रकूट व अरबों से लगातार संघर्ष से सैनिक क्षमता का
ह्रास होना।
3. प्रतिहारों की निर्बलता का लाभ उठाकर गुहिल, राठौड़, चौहान व
भाटी आदि क्षेत्रीय संगठन हानिकारक सिद्ध हुए।
4. मोहम्मद गजनवी का आक्रमण।
अलवर के राजौरगढ़ से 960 ई. का एक शिलालेख मिला है, । जो राजौरगढ़ में प्रतिहार शासन की सूचना देता है। राजौरगढ़ के प्रतिहार कन्नौज के रघुवंशी शासकों के सामन्त थे।