राजस्थान में जनजागृति और प्रजामण्डल PART – 1

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नमस्कार प्रिय विद्यार्थियों आज की इस पोस्ट में आपको राजस्थान में जनजागृति और प्रजामण्डल के बारे में बताया गया है , जिसकी मदद से आप अपनी तैयारी को बेहतर कर सकते हो ,इसी तरह का ओर मेटर प्राप्त करने क लिए आप हमारी वेबसाइट www.exameguru.i को समय – समय पर विजिट करते रहे

1857 ई. का प्रथम स्वाधीनता संग्राम सफल नहीं हो पाया, परंतु जनता में नवचेतना व जागृति की भावना अवश्य उत्पन्न हो गई। इसके लिए निम्नांकित कारक उत्तरदायी थे

• राजस्थान के सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक वैभव की आत्मानुभूति जब हिन्दी, गुजराती और बांग्ला साहित्य से राजस्थानी चरित्रों के बारे में हुई, तब जनता अपने प्राचीन गौरव के प्रति सजग हो उठी।

• आर्य समाज की शाखाओं ने भी राजस्थान में स्वतंत्रता के प्रति विचारों को फैलाकर राष्ट्रीय चेतना प्रज्ज्वलित की। राजनीतिक जागृति की भावना को विकसित करने में स्वामी दयानंद सरस्वती और स्वामी विवेकानंद का महत्वपूर्ण योगदान रहा।।

• साहित्य और पत्रकारिता ने भी राष्ट्रीय भावना को जगाया। बंकिमचन्द्र चटर्जी के ‘वन्देमातरम्’ गान से राजस्थान गूंज उठा। राजस्थान समाचार, देश हितैषी, परोपकारक आदि समाचार पत्रों ने भी राष्ट्रीय भावना की जागृति में महत्वपूर्ण सहयोग दिया। उदयपुर से ‘सज्जन कीर्ति सुधाकर’ तथा अजमेर से एक अंग्रेजी साप्ताहिक राजस्थान टाइम्स’ का सन् 1885 ई. में प्रकाशन शुरू हुआ। अखबारों के माध्यम से लोगों में राष्ट्रीय और राजनीतिक चेतना का उदय हुआ।

• छप्पनियां के भीषण अकाल के समय अंग्रेजों की ओर से जो उपेक्षा बरती गई, उसके कारण अंग्रेजों के प्रति विरोध का वातावरण बना। अतः जनता के मन में स्वतंत्रता प्राप्ति के विचार बनने आरम्भ हो गए।

• एडवर्ड सप्तम के राज्यारोहण समारोह के समय उदयपुर के महाराणा फतेह सिंह को आमंत्रित किया गया। इसमें शामिल होने के लिए उन्होंने दिल्ली प्रस्थान किया। तभी उन्हें रास्ते में शाहपुरा के क्रांतिकारी केसरी सिंह बारहठ ने ‘चेतावनी रा शृंगटियाँ’ नामक एक रचना भेंट की। उससे उनमें आत्मसम्मान की भावना जागी और उन्होंने ‘दिल्ली दरबार’ के समारोह में शामिल न होने का निश्चय किया। महाराणा के इस कार्य से राजस्थान की जनता में एक नवचेतना की लहर दौड़ गई।

• अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों के कारण राजस्थान का आर्थिक जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। बेरोजगारी की स्थिति उत्पन्न हो गई। असंतोष का वातावरण उत्पन्न हो गया।

• 1885 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। 1887 ई. में गवर्नमेंट कॉलेज, अजमेर के छात्रों ने कांग्रेस कमेटी का गठन किया। आगे चलकर जनता में राष्ट्रीय भावना उत्पन्न हुई, जो निरंतर बलवती होती गई। 1888 ई. में कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन में अजमेर के गोपीनाथ माथुर, किशनलाल और हरविलास शारदा राजस्थान के प्रतिनिधि बनकर गए।

1918 ई. में दिल्ली में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में राजस्थान के कई व्यक्तियों ने भाग लिया, जिसके परिणामस्वरूप इनका सम्पर्क ब्रिटिश भारत और अन्य राज्यों के नेताओं से हुआ। इस अधिवेशन के बाद गणेशशंकर विद्यार्थी, विजयसिंह पथिक, जमनालाल बजाज, चांदकरण शारदा, गिरधर शर्मा, स्वामी नरसिंहदेव सरस्वती आदि के प्रयत्नों से राजपूताना मध्य भारत सभा नामक एक राजनीतिक संस्था की स्थापना दिल्ली के चांदनी चौक स्थित मारवाड़ी पुस्तकालय में हुई। बाद में कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन (1920) के समय यह कांग्रेस की सहयोगी संस्था मान ली गई।

राजपूताना मध्य भारत सभा का दूसरा अधिवेशन कांग्रेस अधिवेशन के साथ ही दिसम्बर 1919 में अमृतसर में सम्पन्न हुआ। मार्च 1920 में इसका तीसरा अधिवेशन जमनालाल बजाज की अध्यक्षता में अजमेर मे आयोजित किया गया। दिसम्बर 1920 में सभा का चौथा अधिवेशन नागपुर में हुआ। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन भी इस समय नागपुर में हो रहा था। सभा के अध्यक्ष नरसिंह चिंतामणि केलकर निर्वाचित हुए थे, किन्तु कुछ कारणों से वे नागपुर नहीं पहुँच पाए। अतः जयपुर के गणेशनारायण सोमाणी को सर्वसम्मति से सभापति चुना गया।

अधिवेशन में एक प्रदर्शनी भी लगाई गई, जिसमें राजस्थान के कृषकों की दयनीय स्थिति दर्शायी गई थी। राजस्थानी जनता का आह्वान अब कांग्रेसी नेताओं तक पहुँचा। राजस्थान के नेताओं के दबाव के कारण कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें राजस्थान के राजाओं से यह आग्रह किया गया था कि वे अपनी प्रजा को शासन में भागीदार बनाएँ।

1919 ई. में वर्धा में ही ‘राजस्थान सेवा संघ’ की स्थापना विजयसिंह पथिक, रामनारायण चौधरी और हरिभाई किंकर के योगदान से हुई। इस संघ का मुख्य उद्देश्य जनता की समस्याओं का निवारण करना था। इसका दूसरा ध्येय जागीरदारों और राजाओं का अपनी प्रजा के साथ सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करवाना था। इस संघ के माध्यम से राजस्थान में राजनीतिक चेतना का प्रसार हुआ। धीरे-धीरे बूंदी, जयपुर, जोधपुर, सीकर, खेतड़ी, कोटा आदि स्थानों पर संघ की शाखाएँ खोली गई।

‘राजस्थान सेवा संघ ने बिजौलिया और बेगूं में किसान आन्दोलन, सिरोही और उदयपुर में भील आन्दोलन का मार्गदर्शन किया था। संघ ने बूंदी, सिरोही और उदयपुर में पुलिस द्वारा किए गए अत्याचारों को उजागर किया और इनकी आलोचना की। ब्रिटिश सरकार ‘राजस्थान सेवा संघ’ की गतिविधियों से सशंकित थी। मार्च, 1924 में रामनारायण चौधरी और शोभालाल गुप्त को ‘तरुण राजस्थान’ में देशद्रोहात्मक सामग्री प्रकाशित करने के अपराध में गिरफ्तार कर लिया गया। न्यायालय ने रामनारायण को तो मुक्त कर दिया, परन्तु गुप्त को दो वर्षों के कठोर कारावास की सजा मिली।

1924 ई. में मेवाड़ राज्य सरकार द्वारा ‘पथिक’ को कैद किए जाने के बाद से सेवा-संघ के पदाधिकारियों व सदस्यों में परस्पर मतभेद शुरू हो गए। शनैः शनैः मतभेद की खाई चौड़ी होती गई। परिणामस्वरूप 1928-29 तक ‘राजस्थान सेवा संघ’ पूर्णतया प्रभावहीन हो गया।


सन् 1920 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नेतृत्व महात्मा गांधी के हाथों में आ गया। उन्होंने 1921 ई. में असहयोग आन्दोलन आरम्भ किया। समस्त भारत पर इसका प्रभाव पड़ा। राजस्थान भी इससे अछूता नहीं रहा। यहाँ भी लोगों में देशप्रेम की भावना जागृत हुई और राज्यों में निरंकुश शासन के प्रति तीव्र रोष उत्पन्न हुआ। जोधपुर में एक सत्याग्रही भँवरलाल सर्राफ हाथ में तिरंगा झंडा लेकर शहर में घूमे। झण्डे के एक ओर महात्मा गाँधी और दूसरी ओर ‘स्वराज’ लिखा था।

उन्होंने बाजार में एक भाषण दिया, जिसे जनता ने उत्साह से सुना। टोंक राज्य की जनता ने एक सभा कर काँग्रेस के प्रति पूर्ण सहानुभूति व्यक्त की और असहयोग आन्दोलन का अनुमोदन किया। वहाँ के अंग्रेज पुलिस अधिकारी ने उनके नेता मौलवी अब्दुल रहीम, सैयद जुबेर मियाँ, सैयद इस्माइल मियाँ, काजी महमूद अय्यूब आदि को गिरफ्तार कर लिया। लगभग सत्तर अन्य व्यक्ति भी इस सम्बन्ध में गिरफ्तार किए गए, लेकिन शीघ्र ही छोड़ दिए गए। जयपुर राज्य में जमनालाल बजाज ने अपनी ‘रायबहादुर’ की उपाधि लौटा दी और एक लाख रुपये ‘तिलक स्वराज कोष’ में दिए। उन्होंने ग्यारह हजार रुपये मुस्लिम लीग को दिए। उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की कार्यकारिणी का सदस्य बनाया गया। इसके बाद वे गाँधी जी के बहुत निकट आ गए। बजाज से प्रेरित होकर राजस्थान के दूसरे व्यापारियों ने भी इस आन्दोलन के दौरान कांग्रेस को आर्थिक सहयोग दिया।

बीकानेर में राजनीतिक जागृति अपेक्षाकृत देरी से हुई। धीरे-धीरे यहाँ भी ब्रिटिश प्रान्तों में चल रहे असहयोग आन्दोलन का प्रभाव पड़ने लगा और जनता में रियासती शासन के प्रति असन्तोष फैलना आरम्भ हो गया। सन् 1921 में बीकानेर में मुक्ताप्रसाद वकील आदि ने विदेशी कपड़ों की होली जलाई और खादी पहनने का व्रत लिया। बीकानेर में खादी भण्डार भी खोला गया। अनेक स्थानों पर जनता में जागति लाने के उद्देश्य से पुस्तकालय और वाचनालय खोले गए। चूरू, सुजानगढ़, रतनगढ़ आदि में सर्वहितकारिणी सभा, विद्या प्रचारिणी सभा आदि नाम से समाज सेवा के उद्देश्य से संस्थाएँ स्थापित की गई। इन संस्थाओं की ओर से राजनीतिक साहित्य के पर्चे आदि प्रसारित किए गए।


15 मार्च 1921 को अजमेर में द्वितीय राजनीतिक सम्मेलन का आयोजन किया गया, जिसमें मोतीलाल नेहरू उपस्थित थे। मौलाना शौकत अली ने सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार का आह्वान किया। अजमेर में पण्डित गौरीशंकर के नेतृत्व में विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया गया। इस कार्य में अर्जुनलाल सेठी, चांदकरण शारदा आदि ने भी भाग लिया।


प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान राजस्थान के नरेशों ने तन, मन और धन से ब्रिटिश सरकार को दान कर ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति पूर्ण निष्ठा का परिचय दिया था। ब्रिटिश सरकार ने भी उन्हें अपना विश्वसनीय सहयोगी तथा युद्ध संचालन में भागीदार बनाया था। बीकानेर के महाराजा गंगासिंह को साम्राज्यिक युद्ध मंत्रिमंडल और साम्राज्यिक युद्ध सम्मेलन का सदस्य मनोनीत किया गया। उन्हें जर्मनी से संधिवार्ता में भाग लेने के लिए भारत का प्रतिनिधित्व करने हेतु पेरिस भेजा गया। विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद वायसराय की अध्यक्षता में नरेन्द्र मण्डल की स्थापना की गई, जहाँ देशी राजा अपने राज्यों और भारत सरकार से संबंधित समस्याओं पर विचार-विमर्श कर सकते थे।

इसके साथ ही ब्रिटिश सरकार द्वारा देशी राजाओं को संकेत दिया गया कि राष्ट्रवादी मध्यमवर्गीय लोग किसान, मजदूर आदि समाज की निम्न स्तर की उभरती शक्ति ब्रिटिश सरकार और देशी नरेशों के लिए समान रूप से अशान्ति और खतरा उत्पन्न करने का कारण बन सकती है। ब्रिटिश प्रशासकों ने मेवाड़ के बिजौलिया ठिकाने में किसान पंचायतों की स्थापना पर गौर किया और उनकी आत्मनिर्भरता की तुलना रूसी सोवियतों से की और बिजौलिया किसान आन्दोलन के सूत्रधार पथिक को बोलशेविक (विप्लववादी) कहा। एक बार फिर समान हितों की बात कहकर देशी राज्यों का सहयोग प्राप्त करने का प्रयास किया गया। देशी राज्यों का अस्तित्व ब्रिटिश सत्ता के साथ जुड़ा हुआ था। इसलिए राजस्थान के राजाओं ने असहयोग आन्दोलन को अपने अस्तित्व के लिए खतरा समझा।

राजस्थान के शासक अपने राज्यों में असहयोग आन्दोलन के दौरान होने वाली गतिविधियों के प्रति सतर्क हो गए। स्वयं को प्रगतिशील मानने वाले बीकानेर के महाराजा गंगासिंह ने अपने राज्य के शिवमूर्ति सिंह, सम्पूर्णानन्द और आनन्द वर्मा को सरकारी नौकरी से इसलिए निलंबित कर दिया क्योंकि वे स्वदेशी वस्त्र पहनते थे और उन्होंने ‘तिलक स्वराज कोष’ में चंदा जमा कराया था।


जोधपुर महाराजा के संरक्षक सर प्रतापसिंह इस आन्दोलन के कारण इतना बौखला उठे कि उन्होंने राज्य में विदेशी माल को प्रोत्साहन देना आरम्भ कर दिया, जबकि इससे पूर्व वे महर्षि दयानन्द के उपदेश मानकर हिन्दी भाषा और स्वदेशी का प्रचार कर रहे थे।


उदयपुर के महाराणा फतेहसिंह असहयोग आन्दोलन के प्रति गुप्त रूप से सहानुभूति रखते थे। भारत सरकार ने उन्हें आदेश दिया कि वे या तो उनके कहे अनुसार मंत्रिमंडल का गठन करें या युवराज को शासन के अधिकार सौंपकर स्वयं राजकाज से अलग हो जाएँ।


महाराणा ने विवश होकर अपने युवराज भूपालसिंह को 28 जुलाई, 1921 को शासनाधिकार सौंप दिये । युवराज ने अंग्रेज सरकार की इच्छानुसार मंत्रिमंडल बनाया। राजस्व विभाग जैसा महत्वपूर्ण विभाग एक अंग्रेज अधिकारी मिस्टर ट्रैच को सौंप दिया गया।

ब्रिटिश सरकार अब यह प्रयत्न करने लगी थी कि जहाँ तक हो सके राजस्थान के राज्यों में अंग्रेज मंत्रियों की नियुक्ति हो ताकि वे राज्यों में बढ़ती हुई राजनीतिक चेतना पर नियंत्रण रख सकें। सिरोही, बूंदी, जोधपुर और जयपुर में अंग्रेज व्यक्तियों को मंत्री नियुक्त किया गया। जहाँ ऐसा संभव नहीं हुआ, वहाँ राज्य के बाहर के व्यक्तियों को उच्च पदों पर नियुक्त करने की व्यवस्था की गई। स्थानीय प्रतिभा की पूर्ण रूप से अवहेलना की गई। मारवाड़ (जोधपुर) राज्य का प्रथम मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण व्यक्ति और स्थानीय कॉलेज का प्रथम स्नातक दरबार हाई स्कूल में क्रमशः लेखाकार और सामान्य अध्यापक के पद पर ही कार्यरत रहे।

राजस्थान के अनेक राज्यों में राजाओं के प्रशासन का अधिकार छीनकर नवनियुक्त दीवानों और निरंकुश नौकरशाहों को दे दिया गया। उनका कार्य जनता की राजनीतिक गतिविधियों पर अंकुश लगाये रखना था। वे अपने कार्यों के लिए राजा या जनता के स्थान पर दिल्ली के राजनीतिक विभाग के प्रति उत्तरदायी थे।
 
बीसवीं शताब्दी के तृतीय दशक तक राज्यों में बहुत बड़ी संख्या में शिक्षित लोग मौजूद थे, जिन्हें राज्य में कार्य करने का अवसर प्राप्त नहीं हो रहा था, परिणामस्वरूप उनमें असन्तोष फैल गया। इस शिक्षित वर्ग ने प्रचलित व्यवस्था में व्याप्त अनियमितताओं को उजागर कर जनता में जागृति उत्पन्न की। उन्होंने नागरिक अधिकारों और उत्तरदायी सरकार की स्थापना के लिए संघर्ष किया और जन-आन्दोलनों को नेतृत्व प्रदान किया। राजस्थान में अब एक नये युग का सूत्रपात हुआ।

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