राजस्थान में जनजातियों के आंदोलन PART – 1

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नमस्कार प्रिय विद्यार्थियों आज की इस पोस्ट में आपको राजस्थान में जनजातियो के आंदोलनों के बारे में बताया गया है , जिसकी मदद से आप अपनी तैयारी को बेहतर कर सकते हो ,इसी तरह का ओर मेटर प्राप्त करने क लिए आप हमारी वेबसाइट www.exameguru.i को समय – समय पर विजिट करते रहे

राजस्थान में स्थानीय सामन्तवाद व ब्रिटिश साम्राज्यवाद के मध्य अपवित्र गठबन्धन का प्रतिरोध सर्वप्रथम मेर, मीणा एवं भील जनजातियों ने किया।
 
मेर विद्रोह (1818-1824) :


मेरों द्वारा आबाद क्षेत्र अंग्रेजों के आगमन के पूर्व सीधे तौर पर किसी राजनीतिक सत्ता के नियंत्रण में नहीं था। मेरों द्वारा आबाद क्षेत्रों के भू-भाग मेवाड़, मारवाड़ एवं अजमेर के अन्तर्गत थे, किन्तु मेरों पर इनका राजनीतिक व प्रशासनिक नियंत्रण नहीं था। सर्वप्रथम अंग्रेजों ने उन्हें अपने पूर्ण नियंत्रण में लाने का प्रयास किया था। यही मेरों के विद्रोह का प्रमुख कारण बना।
 
 
सन् 1818 में अजमेर के अंग्रेज सुपरिन्टेन्डेन्ट एफ. विल्डर ने झाक एवं अन्य गांवों, जो मेरवाड़ा क्षेत्र के केन्द्र बिन्दु माने जाते थे, के साथ समझौता किया, जिसके अनुसार मेरों ने लूट-पाट न करने की सहमति प्रदान की। मार्च, 1819 में विल्डर ने किसी साधारण घटना को मेरों द्वारा उपर्युक्त समझौते को तोड़ना सिद्ध करते हुए मेरवाड़ा पर आक्रमण कर दिया। उसने नसीराबाद से सैनिक साथ लेकर मेरों के खिलाफ दण्डात्मक अभियान आरम्भ किया। मेरों को दण्डित किया गया तथा उन पर नियमित निगरानी रखने के लिए मेरवाड़ा क्षेत्र में पुलिस चौकियां स्थापित की। इस प्रकार अंग्रेजों द्वारा मेरों को घेरने की नीति आरम्भ की गई। अतः प्रतिक्रिया स्वरूप मेरों ने सन् 1820 के आरम्भ से ही जगह-जगह विद्रोह कर दिया तथा अपने क्षेत्रों से पुलिस चौकियों व थानों को हटाने का प्रयास किया। नवम्बर, 1820 में झाक नामक स्थान पर ब्रिटिश पुलिस के हत्याकाण्ड ने अंग्रेजों तथा साथ ही मेवाड़ व मारवाड़ राज्यों को भयभीत कर दिया था।


यहां मेर विद्रोह अत्यन्त व्यापक व भयानक था। मेरों ने अनेक स्थानों पर अंग्रेजी पुलिस चौकियों को जला दिया था तथा सिपाहियों को मार दिया था। बढ़ते हुए मेर विद्रोह को दबाने के लिए अग्रेजी सेना की तीन बटालियनों, मेवाड़ एवं मारवाड़ की संयुक्त सेनाओं ने मेरों पर आक्रमण किया, जिसमें भारी जन-धन की हानि हई। ये सेनाएँ जनवरी, 1821 के अन्त तक मेर विद्रोह का दमन  करने में सफल रहीं।
 
 
1822 ई. में मेरों से गठित मेरवाड़ा बटालियन ब्यावर मुख्यालय पर स्थापित की गई। लम्ब समय तक सम्पूर्ण मेरवाड़ा क्षेत्र ब्रिटिश नियंत्रण में रहा। ब्रिटिश प्रशासन उन्नीसवीं सदी के अन्त तक कठार दमनात्मक उपायों का सहारा लेकर मेरवाड़ा में शान्ति स्थापित करने में सफल रहा। बीसवा सदा बीसवी सदी  के प्रारम्भिक वर्षों में अंग्रेजों ने मेरों में समाज सुधार गतिविधियों का प्रारम्भ किया। इस प्रकार अंग्रेज 1947 तक मेर विद्रोहों को नियन्त्रित करने में सफल रहे।

भील विद्रोह (1818-1880) :

भील मूलतः एक शान्तिप्रिय जनजाति रही है। वे अंग्रेजों के आगमन तक स्वतंत्र जीवन व्यतीत कर रहे थे तथा 1818 ई. के पश्चात् उनके ऊपर स्थापित अर्धसामंती व अर्ध औपनिवेशिक नियंत्रण ने उन्हें विद्रोह के लिए बाध्य किया।
 
1818 ई. में उदयपुर राज्य के भीलों ने अनेक कारणों से विद्रोह किया। एक तो भीलों पर कर थोपने के अंग्रेजी प्रयासो ने भीलों में असंतोष को जन्म दिया। दूसरा, अंग्रेजों की भील दमन नीति ने भीलों के मन में अंग्रेजों के विरुद्ध अनेक मनोवैज्ञानिक संदेह उत्पन्न कर दिए थे। तीसरा, ईस्ट इंडिया कंपनी के सहायक सन्धि के तुरन्त पश्चात् उदयपुर राज्य का आन्तरिक प्रशासन जेम्स टॉड ने अपने हाथ में ले लिया था तथा उसने भीलों पर राज्य का प्रभुत्व स्थापित करने के लिए भीलों को अपने नियंत्रण में लाने । का प्रयास किया। चौथा, 1818 की सन्धि के पश्चात अधिकांश देशी सेनाओं को भंग कर दिया गया था। भील राज्य एवं जागीरदारों की सेना में नियमित अथवा अनियमित रूप से नियुक्त रहते थे तथा इन सेनाओं के भंग होने से बेरोजगारी के चलते उनमें असंतोष उत्पन्न होना स्वाभाविक ही था।


पांचवा, भील अपनी पाल के समीप ही गांवों से रखवाली (चौकीदारी कर) नामक कर तथा अपने क्षेत्रों से गुजरने वाले माल व यात्रियों से बोलाई (सुरक्षा) नामक कर वसूल करते थे। जेम्स टॉड ने राज्य की आय व राजस्व में वृद्धि के प्रयासों के अन्तर्गत तथा भीलों पर कठोर नियंत्रण स्थापित करने के ध्येय से भीलों से उनके ये अधिकार छीन लिए थे। यह भील-विद्रोह का तात्कालिक कारण बना। भीलों ने अपने इन परम्परागत अधिकारों को छोड़ने से इन्कार करते हुए अंग्रेजों व उदयपुर राज्य के विरुद्ध विद्रोह कर दिया।
 

1818 ई. के अन्त तक उदयपुर राज्य के भीलों ने यह चेतावनी देते हुए अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी कि यदि सरकार उनके आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करेगी, तो वे विद्रोह के लिए बाध्य होंगे। भीलों ने अपने क्षेत्रों की नाकेबन्दी करते हुए राज्य के विरुद्ध बगावत कर दी। लम्बे समय तक राज्य के अधिकारी भील क्षेत्रों में नहीं घुस सके। 1820 ई. के आरम्भ में अंग्रेजी सेना का एक अभियान दल विद्रोही भीलों के दमन हेतु भेजा गया, किन्तु इसे सफलता नहीं मिली। अंग्रेजी सेना की इस असफलता ने भील-विद्रोह को और अधिक तीव्र कर दिया था। आगे चलकर जनवरी, 1823 ई. में ब्रिटिश व रियासत की संयुक्त सेनाओं ने दिसम्बर, 1823 ई. तक भील विद्रोह को दबाने में सफलता प्राप्त की।


उदयपुर राज्य के भील-विद्रोहों से प्रभावित होकर डूंगरपुर व बांसवाड़ा राज्यों के भीलों ने भी अल्प अशान्ति उत्पन्न की तथा 1825 में आदिवासी विद्रोहों की बिखरी हुई घटनाएँ घटीं। डूंगरपुर राज्य में स्थिति अधिक गम्भीर थी। इसलिए भीलों के दमन हेतु अंग्रेजी सेना भेजी गई, किन्तु वास्तविक संघर्ष आरम्भ होने के पूर्व ही भील मुखियाओं ने मई, 1825 में समझौता कर लिया। इसी प्रकार का समझौता डूंगरपुर राज्य की सिमूर वारु, देवल एवं नन्दू पालों के भीलों ने भी किया। उपर्युक्त समझौते के प्रावधान एकपक्षीय थे, किन्तु इनके माध्यम से अंग्रेज लम्बे समय तक डूंगरपुर राज्य में शांति बनाए रखने में सफल रहे।
 
 उदयपुर राज्य के भीलों ने कभी भी इस प्रकार की शर्ते स्वीकार नहीं की तथा अंग्रेजों व उदयपुर राज्य के समक्ष समर्पण नहीं किया। जनवरी, 1826 ई. में गिरासिया भील मुखिया दौलत सिंह एवं गोविन्दराम ने अंग्रेजों व उदयपुर राज्य के खिलाफ विद्रोह कर दिया था। 1826 ई. में लम्बी बातचीत के उपरान्त दौलत सिंह के आत्मसमर्पण के पश्चात् ही यह विद्रोह समाप्त हुआ। अंग्रेजों व उदयपुर राज्य ने 1838 ई. तक भीलों के प्रति उदार नीति अपनाई क्योंकि दमनात्मक सैनिक आक्रमणों के वांछित परिणाम प्राप्त नहीं हुए थे। यूं छुट-पुट भील उपद्रव की घटनाएं जारी रही, किन्तु कुल मिलाकर 1838 तक उदयपुर राज्य में शान्ति रही। 1836 में बांसवाड़ा राज्य में भील उपद्रव हुए, जिन्हें अंग्रेजी सेना की सहायता से बांसवाड़ा के महारावल ने तुरन्त नियंत्रित कर दिया था।
 
अंग्रेजों ने बल प्रयोग के उपाय नहीं छोड़े, बल्कि मेरवाड़ा बटालियन की पद्धति पर भीलों के विरुद्ध लम्बी सैनिक योजना तैयार की, जिसके अन्तर्गत भीलों पर नियंत्रण स्थापित करने के उद्देश्य से भीलों की सेना के गठन का निर्णय किया। अप्रैल, 1841 में गवर्नर जनरल ने अपनी सलाहकार परिषद की सलाह पर मेवाड़ भील कोर के गठन को स्वीकृति प्रदान कर दी। मेवाड़ भील कोर का मुख्यालय उदयपुर राज्य में खैरवाड़ा रखा गया। मेवाड़ के भील क्षेत्रों में खैरवाड़ा एवं कोटड़ा में दो छावनियां स्थापित की गई।
 

अंग्रेजों के सैनिक उपाय कुछ समय तक ही भीलों को शान्त रख सके थे। 1844 में बांसवाड़ा राज्य में छुटपुट भील विद्रोह हुए। इसी समय माही काठा एजेन्सी के अन्तर्गत पोसीना (गुजरात) एवं सिरोही राज्य के भील व गिरासिया विद्रोही हो गए थे। बांसवाड़ा राज्य के भील विद्रोह को गुजरात में 1846 के कुंवार जिवे वसावो के नेतृत्व में गुजरात के भील-विद्रोह से बढ़ावा मिला। बांसवाड़ा राज्य ने अपने वकील कोठारी केसरीसिंह को सहायता हेतु वेर्स्टन मालवा ब्रिटिश एजेन्ट के पास भेजा तथा अंग्रेजी सेना की सहायता से 1850 ई. के अन्त तक भील-विद्रोह को कुचल दिया गया था।

 
1850 ई. से 1855 ई. के मध्य कोई बड़े भील–विद्रोह की घटना नहीं घटी, किन्तु दिसम्बर, 1855 में उदयपुर राज्य के कालीबास के भील विद्रोही हो गए थे। महाराणा ने मेहता सवाई सिंह को एक सेना लेकर 1 नवम्बर, 1856 को भीलों के दमन हेतु भेजा सेनाओं ने गांवो में आग लगा दी तथा भारी संख्या में भीलों को मौत के घाट उतार दिया गया। 1860 ई. तक निरन्तर छुटपुट भील-विद्रोह की घटनाएँ घटती रही। 1857 ई. की क्रांति के दौरान भी भील विद्रोहों की सम्भावना थी, किन्तु भील इस राष्ट्रीय क्रान्ति से अनभिज्ञ थे तथा राजकीय पलटनों ने अंग्रेजों के प्रति विद्रोह नहीं किया।
 

वर्ष 1861 में उदयपुर के समीप खैरवाड़ा क्षेत्र में भील उपद्रवों की घटनाएं सामने आईं। 1863 ई. में कोटड़ा के भील हिंसक गतिविधियों में संलग्न हो गए. जिसकी जिम्मेदारी मेवाड भील कोर के कमान्डिंग अधिकारी ने उदयपुर राज्य पर सौंपी, क्योंकि राज्य के प्रशासनिक अधिकारी भीलों के साथ उचित व्यवहार नहीं कर रहे थे। इन आधारों पर हाकिम को स्थानान्तरित कर दिया तथा सैनिक कारवाई व शान्तिपूर्वक समझाकर भील उत्पात को शान्त कर दिया गया था।

तत्पश्चात् 1867 ई. में खैरवाड़ा व डूंगरपुर के मध्य देवलपाल के भीलों ने उत्पात आरम्भ कर दिया, जिसे मेवाड़ भील कोर ने कुचल दिया था। 1872-75 के दौरान बांसवाड़ा में भील-विद्रोह की अनेक घटनाएँ घटीं।
 
बांसवाड़ा राज्य में चिलकारी व शेरगढ़ गांवों के भील छापामार गतिविधियों द्वारा अशान्त रहे । 1873 – 74 के दौरान इन गांवों के भीलों ने खुला विद्रोह कर दिया था उनकी गतिविधियाँ मध्य भारत के सैलाना व झाबुआ राज्यों तक फैल गई थी। 1881-1882 में उदयपुर राज्य के भील अंग्रेजों व राज्य के विरुद्ध उठ खड़े हुए थे। यह 19वीं सदी का सबसे भयानक भील विद्रोह सिद्ध हुआ। असल में यह लम्बे समय से एकत्रित भील आक्रोश का विस्फोट था।
 
 
26 मार्च, 1881 की रात में राज्य की सेनाएँ मामा अमानसिंह (राज्य का प्रतिनिधि) एवं लोनारगन (अंग्रेज प्रतिनिधि) के नेतृत्व में बारापाल पहुँची। इसके साथ महाराणा का निजी सचिव श्यामलदास भी था। 27 मार्च को सेना ने बारापाल में सैंकड़ों भील झोंपड़ियों को जलाकर राख कर दिया। 28 मार्च को पूरे दिन सैनिक अभियान जारी रहा था तथा बारापाल के आस-पास भीलों के झोंपड़ों को जलाया जाता रहा। फौज की इन कार्रवाइयों से बचने के लिए अधिकांश भीलों ने परिवार सहित स्वयं अपने घरों को उजाड़कर सघन जंगलों व पहाड़ियों की ऊँची चोटियों पर पहुंचकर सुरक्षात्मक स्थिति प्राप्त कर ली थी।
 

अपनी स्थिति सुदृढ़ कर भीलों ने मार्ग में बाधा उत्पन्न कर राज्य की सेनाओं को आगे बढ़ने से रोक दिया। निराश सेना व सेनापतियों ने सुरक्षात्मक स्थिति लेकर रिखवदेव में डेरे डाल दिए थे। यहाँ लगभग 8000 भीलों ने इन्हें घेर लिया। इस विद्रोह के प्रमुख नेता बीलखपाल का गामेती नीमा, पीपली का खेमा एवं सगातरी का जोयता थे। सैनिक अधिकारियों ने भीलों के साथ शान्ति-समझौते के प्रयास किए, किन्तु कोई सफलता नहीं मिली।

महाराणा के निजी सचिव श्यामलदास ने रिखवदेव मन्दिर के पुजारी खेमराज भंडारी के माध्यम से भील नेताओं से वार्ता आरम्भ की। अन्त में 25 अप्रैल, 1881 को भीलों के साथ एक समझौता हो गया। राज्य के अधिकारी आधा बराड़ कर छोड़ने, भविष्य में भीलों को जनगणना कार्यों से कष्ट न पहुँचाने एवं विद्रोही भीलों को माफी देने पर सहमत हो गए। भीलों ने राज्य के नियमों के पालन करने का वचन देते हुए कानून-विरोधी गतिविधियों में संलग्न न होने की स्वीकृति दी। उपर्युक्त समझौते ने एक भयंकर भील-विद्रोह को शान्त अवश्य कर दिया था, किन्तु पूर्ण शान्ति स्थापित नही हो पाई थी।

यद्यपि मेवाड़ की भील समस्या को 19वीं सदी के अन्त तक पर्याप्त सीमा तक सुलझा लिया गया था, किन्तु डूंगरपुर व बासंवाड़ा के भीलों पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया था। अतः 20वीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में डूंगरपुर व बासंवाड़ा राज्यों में गोविन्द गिरि के नेतृत्व में शक्तिशाली भील आन्दोलन आरम्भ हुआ। गोविन्द गिरि ने भीलों के उत्थान हेतु समाज एवं धर्म सुधार आन्दोलन आरम्भ किया था जो आगे चलकर राजनीतिक -आर्थिक विद्रोह में परिवर्तित हो गया था।


गोविन्द गिरि डूंगरपुर में बेडसा नामक गांव के निवासी एवं जाति से बंजारा थे। वे स्वयं छोटे किसान थे। उनकी निर्धन आर्थिक दशा एवं उनके पुत्रों व पत्नी की मृत्यु ने उन्हें अध्यात्म की ओर प्रेरित किया तथा वे संन्यासी बन गए। वे कोटा, बूंदी अखाड़े के साधु राजगिरि के शिष्य बन गए। उन्होंने धूनी स्थापित कर एवं निशान (ध्वज) लगाकर आस-पास के क्षेत्र के भीलों को आध्यात्मिक शिक्षा देना आरम्भ किया।
 
 
गोविन्द गिरि के विचारों ने भीलों को जागृत किया एवं उन्हें अपनी दशाओं व अधिकारों के प्रति जागरूक बनाया। इन विचारों ने उन्हें यह सोचने के लिए भी बाध्य कर दिया था कि उनके वर्तमान शासकों ने उन्हें पराधीन कर रखा है, जबकि वे स्वयं इस भूमि के स्वामी थे एवं इन्हें इस पर पनः शासन करना चाहिए। इस प्रकार यह समाज एवं धर्म सुधार आन्दोलन आर्थिक एवं राजनीतिक आन्दोलन में बदलता जा रहा था।

गोविन्द गिरि की उपर्युक्त शिक्षाओं व कल्याणकारी गतिविधियों के कारण उनका भगत पंथ भीलों में अत्यधिक लोकप्रिय हो रहा था। गोविन्द गिरि के बढ़ते हुए प्रभाव से राजा, उनके अधिकारी एवं जागीरदार चिंतित होने लगे थे कि उसका बढ़ता हुआ प्रभाव कहीं उनकी सत्ता को पलट न दे। अतः वे इन उपदेशकों अथवा प्रचारकों को अपने राज्य अथवा जागीर की सीमाओं से बाहर निकल जाने पर बाध्य करने लगे, जिससे वर्गीय कटुता बढ़ने लगी. तथा समाज एवं धर्म सुधार आन्दोलन राजनीतिक स्वरूप प्राप्त करने लगा था। सन् 1908 में गोविन्द गिरि नै राजपूताना छोड़कर 1910 तक एक कृषक के रूप में गुजरात के सूंथ एवं ईडर राज्य के भीलों में कार्य किया। उन्होंने इन राज्यों के भीलों को जाग्रत कर उनका शक्तिशाली जन आन्दोलन तैयार किया था।

ईडर राज्य के अन्तर्गत पाल-पट्टा में भील आन्दोलन से ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई कि वहाँ के जागीरदार ने भीलों के साथ 24 फरवरी, 1910 को एक समझौता किया। इस समझौते के अन्तर्गत कुल 21 शर्ते थीं जो भीलों के अधिकारों से सम्बंध रखती थीं। इस समझौते ने राजस्थान व गुजरात के भीलों को सामन्ती शोषण के विरुद्ध लड़ने का उत्साह दिया। यह समझौता गोविन्द गिरि के आन्दोलन की सफलता कहा जा सकता है। सन् 1911 के आरम्भ में वह डूंगरपुर स्थित अपने मूल स्थान बेडसा वास आए। वहां उसने धूनी स्थापित कर भीलों को आधुनिक पद्धति पर उपदेश देना आरम्भ किया। सन् 1911 में उन्होंने अपने पंथ को नए रूप में संगठित किया तथा धार्मिक शिक्षाओं के साथ-साथ भीलों को सामन्ती व औपनिवेशिक शोषण से मुक्ति की युक्ति भी समझाने लगे। उन्होंने प्रत्येक भील गांव में अपनी धूनी स्थापित की तथा इनकी रक्षा हेतु कोतवाल नियुक्त किए गए थे।

गोविन्द गिरि द्वारा नियुक्त कोतवाल केवल धार्मिक मुखिया ही नहीं थे, बल्कि अपने क्षेत्र के सभी मामलों के प्रभारी थे। वे भीलों के मध्य विवादों का निपटारा भी करते थे। इस प्रकार अन्य अर्थो में गोविन्द गिरि की समानान्तर सरकार चलने लगी, किन्तु दूसरी ओर राजा व जागीरदारों द्वारा उनके शिष्यों का उत्पीड़न भी जारी रहा।

बेडसा गोविन्द गिरि की गतिविधियों का केन्द्र बन गया था। ईडर, सूंथ, बांसवाड़ा व डूंगरपर राज्यों तथा पंच महल व खेडा जिले के भील वहां आने लगे। इस आन्दोलन का प्रभाव सम्पूर्ण दक्षिणी राजस्थान के राज्यों व बम्बई सरकार के अन्तर्गत गुजरात के भील क्षेत्रों में फैल गया था। उनके बढ़ते हुए प्रभाव से भयभीत होकर अप्रैल, 1913 में डूंगरपुर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया तथा उनका सभी सामान जब्त कर लिया था व उन्हें उनके धार्मिक पंथ को छोड़ने के लिए धमकाया। सामन्ती एवं आपैनिवेशिक सत्ता द्वारा उत्पीड़क व्यवहार ने गोविन्द गिरि एवं उनके शिष्यों को सामन्ती व औपनिवेशिक दासता से मुक्ति प्राप्त करने हेतु भील राज की स्थापना की योजना बनाने की ओर प्रेरित किया।
 
गोविन्द गिरि अक्टूबर, 1913 में मानगढ़ पहाड़ी पर पहुँचे तथा भीलों को पहाड़ी पर एकत्रित होने के लिए सन्देशवाहक भेजे गए। धीरे-धीरे भारी संख्या में भील पहाड़ी पर आने लगे तथा साथ में राशन-पानी व हथियार भी ला रहे थे। इन गतिविधियों ने सूंथ, बांसवाड़ा, डूंगरपुर एवं ईडर राज्यों को चौकन्ना कर दिया था। इन सभी राज्यों ने अपने सम्बन्धित अंग्रेज अधिकारियों से मानगढ़ पर भीलों के जमावड़े व पालों में युद्ध के लिए तैयारी कर रहे भीलों को कुचलने की प्रार्थना की।


6 से 10 नवम्बर, 1913 में मेवाड़ भील कोर की दो कम्पनियां, 104 वेलेजली रायफल्स की एक कम्पनी व सातवीं राजपूत रेजीमेन्ट की एक कम्पनी मानगढ़ पर भीलों के जमावड़े को कुचलने के लिए पहुंची। विफल वार्ताओं के बाद 17 नवम्बर, 1913 को अंग्रेजी फौजों ने मानगढ़ की पहाड़ी पर आक्रमण कर दिया। मानगढ़ की पहाड़ी के सामने दूसरी पहाड़ी पर अंग्रेजी फौजों ने तोप व मशीन गनें तैनात कर रखी थीं एवं वहीं से गोला बारूद दागे जाने लगे। लगभग एक घन्टे तक मानगढ़ पर भीलों ने सेना का सफल मुकाबला किया. किन्तु आधुनिक युद्ध सामग्री के समक्ष अधिक समय तक वे टिक नहीं सके।

मानगढ़ की पहाड़ी के नीचे तैनात अंग्रेजी फौज पहाड़ी को घेरते हुए ऊपर पहुंची तथा भीलों को अंधाधुंध गोलियों से भूनना आरम्भ कर दिया। भीलों में भी भगदड़ मच गई। कुछ ही समय में पहाड़ी पर भीलों ने आत्मसमर्पण कर दिया, उसके उपरान्त भी भीलों का कत्लेआम जारी रहा। अंग्रेजी दस्तावेजों के अनुसार कुल 100 भील मारे गए थे तथा 900 भीलों को बन्दी बना लिया गया। इनके साथ ही गोविन्द गिरि व पुन्जीया को भी बन्दी बना लिया गया था।
 
भील आन्दोलन कुचल दिया गया था। किन्तु भील अपने गुरू की गिरफ्तारी को लेकर आन्दोलित और भीलों में गोविन्द गिरि भारी लोकप्रिय थे क्योंकि उन्होंने उन्हें अनेक बुराइयों से मुक्ति दिलाई थी। अत: गोविन्द गिरि की लोकप्रियता के कारण उनकी आजीवन कारावास की सजा को दस वर्ष की सजा में बदल दिया गया था तथा सात वर्ष के पश्चात् इस शर्त पर रिहा कर दिया गया था कि वे सूंथ, डूंगरपुर, बांसवाडा, कुशलगढ़, एवं ईडर राज्यों में प्रवेश नहीं करेंगे। वे सरकारी निगरानी में अहमदाबाद सम्भाग के अन्तर्गत पंचमहल जिले के झालोद नामक गांव में रहने लगे। इसी स्थान पर सभी क्षेत्रों के भगत भील उनके प्रवचन सुनने वहाँ पहुँचने लगे।

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